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कविता

छल

अरुण देव


अगर मैं कहता हूँ किसी स्त्री से
तुम सुंदर हो

क्या वह पलट कर कहेगी
बहुत हो चुका तुम्हारा यह छल
तुम्हारी नजर मेरी देह पर है
सिर्फ देह नहीं हूँ मैं

अगर मैंने कहा होता
तुम मुझे अच्छी लगती हो
तो शायद वह समझती कि उसे अच्छी बनी रहने के लिए
बने रहना होगा मेरे अनुकूल
और यह तो अच्छी होने की अच्छी-खासी सजा है

मित्र अगर कहूँ
तो वह घनिष्ठता कहाँ
जो एक स्त्री-पुरुष के शुरुआती आकर्षण में होती है
दायित्वविहीन इस संज्ञा से जब चाहूँ जा सकता हूँ बाहर
और यह हिंसा अंततः किसी स्त्री पर ही गिरेगी

सोचा की कह दूँ कि मुझे तुमसे प्यार है
पर कई बार यह इतना सहज नहीं रहता
बाजार और जीवन-शैली से जुड़कर इसके मानक मुश्किल हो गए हैं
और अब यह सहजीवन की तैयारी जैसा लगता है
जो अंततः एक घेराबंदी ही होगी किसी स्त्री के लिए

अगर सीधे कहूँ
कि तुम्हरा आकर्षण मुझे
स्त्री-पुरुष के सबसे स्वाभाविक रिश्ते की ओर ले जा रहा है...
तो इसे निर्लज्जता समझा जाएगा
और वह कहेगी
इस तरह के रिश्ते का अंत एक स्त्री के लिए पुरुष की तरह नही होता...

भाषा से परे
मेरी देह की पुकार को तुम्हारी देह तो समझती है
भाषा में तुम करती हो इनकार

और सितम कि भाषा भी चाहती है यह इनकार।

 


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